लघुकथाएं

मुखौटा


नेताजी को चुनाव लड़ना था। जनता पर उनका अच्छा प्रभाव न था। इसके लिए वे मुखौटा बेचने वाले की दूकान में गए। दूकानदार ने भालू, शेर, भेडिए,साधू–संन्यासी के मुखौटे उसके चेहरे पर लगाकर देखे। कोई भी मुखौटा फिट नहीं बैठा। दूकानदार और नेताजी दोनों ही परेशान।
दूकानदार को एकाएक ख्याल आया। भीतर की अँधेरी कोठरी में एक मुखौटा बरसों से उपेक्षित पड़ा था। वह मुखौटा नेताजी के चेहरे पर एकदम फिट आ गया। उसे लगाकर वे सीधे चुनाव–क्षेत्र में चले गए।
परिणाम घोषित हुआ। नेताजी भारी बहुमत से जीत गए। उन्होंने मुखौटा उतारकर देखा। वे स्वयं भी चौंक उठे–वह इलाके के प्रसिद्ध डाकू का मुखौटा था।
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दूसरा सरोवर


एक गाँव था। उसी के पास में था स्वच्छ जल का एक सरोवर। गाँव वाले उसी सरोवर का पानी पीते थे। किसी को कोई कष्ट नहीं था। सब खुशहाल थे।
एक बार उजले–उजले कपड़े पहनकर एक आदमी गाँव में आया। उसने सब लोगों को मुखिया की चौपाल में इकट्ठा करके बहुत अच्छा भाषण दिया। उसने कहा–‘‘सरोवर आपके गाँव में एक मील की दूरी पर है। आप लोगों को पानी लाने के लिए बहुत दिक्कत होती है। मैं जादू के बल पर सरोवर को आपके गाँव के बीच में ला सकता हूँ। जिसे विश्वास न हो वह मेरी परीक्षा ले सकता है। मैं चमत्कार के बल पर अपना रूप–परिवर्तन कर सकता हूँ। गाँव के मुखिया मेरे साथ चलें। मेरा चमत्कारी डंडा इनके पास रहेगा। मैं सरोवर में उतरूँगा। ये मेरे चमत्कारी डण्डे को जैसे ही ज़मीन पर पटकेंगे मैं मगरमच्छ का रूप धारण कर लूँगा। उसके बाद फिर डण्डे को ज़मीन पर पटकेंगे, मैं फिर आदमी का रूप धारण कर लूँगा।’’
लोग उसकी बात मान गए। उजले कपड़े किनारे पर रखकर वह पानी में उतरा। मुखिया ने चमत्कारी डण्डा ज़मीन पर पटका। वह आदमी खौफनाक मगरमच्छ बनकर किनारे की ओर बढ़ा। डर से मुखिया के प्राण सूख गए। हिम्मत जुटाकर उसने फिर डण्डा ज़मीन पर पटका। मगरमच्छ पर इसका कोई असर नहीं हुआ। नुकीले जबड़े फैलाए कांटेदार पूछ फटकारते हुए मगरमच्छ, मुखिया की तरफ बढ़ा। मुखिया सिर पर पैर रखकर भागा। डण्डा भी उसके हाथ से गिर गया।
अब उस सरोवर पर कोई नहीं जाता। उजले कपड़े आज तक किनारे पर पड़े हैं। गाँव वाले चार मील दूर दूसरे सरोवर पर जाने लगे हैं।
आज वह मगरमच्छ जगह–जगह नंगा घूम रहा है।
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खुशबू


दोनों भाइयों को पढ़ाने–लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग–अलग शहरों में जा बसे।
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह।
खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक–सी उठी–कितनी अकेली हो गई है मेरे जि़न्दगी। किस बीहड़ में खो गए मिठास भरे सपने।
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी–कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र–व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते–सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय–तौबा कहाँ तक सुने?
उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी दीदीजी–दीदीजी की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ।
‘‘दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।’’ दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसी तरफ बढ़ी।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद–मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।
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