लघु कहानी पांच लघुकहानियां


अंतर

रामप्रसाद बाबू के हाथों में बेटी राधा का पत्र था, जिसमें उसने लिखा था कि बाबूजी मकान खरीद रही हूं. एक लाख रुपये कम हैं, भेज दें. जैसे ही होंगे तुरंत वापस भेज दूंगी.
रामप्रसाद बाबू सोच में पड़ गए. बेटी को धन देना तो चाहिए पर वापसी तो ठीक नहीं है. फिर दूसरा रास्ता क्या है?
अंत में रामप्रसाद बाबू ने बेटी को पत्र लिखा - 'बेटी बहुत मजबूरी है कि तुम्हारी जरूरत पर मेरे हाथ खाली हैं' और फिर डाकघर जाकर पत्र पोस्ट कर दिया.
एक हफ्ता ही बीता था कि बेटे का पत्र दिल्ली से आया - 'बाबूजी मकान खरीद रहा हूं कुछ मदद करें.'
रामप्रसाद बाबू ने तुरंत पत्नी से बातचीत कर बैंक से रुपये निकलवाए और बैंक ड्राफ्ट बनवाकर बेटे को भेज दिया.
इधर रामप्रसाद बाबू काफी बीमार थे, उन्होंने बेटे और बेटी दोनों को तार कर दिया था. बेटे का कहीं पता न था जबकि बेटी तीसरे दिन पहुंच गई और साथ चलने की जिद कर रही थी.
रामप्रसाद बाबू मौन, बिस्तर पर लेटे बस बेटी का हाथ अपने हाथ में लेकर रोते जा रहे थे.

अवमूल्यन

एक अध्यापक अक्सर अपने छात्रों को पढ़ाते समय आदिकाल की सम्मानजनक गुरु-शिष्य परंपरा को बड़े ही गर्व के साथ शिष्यों को बताया करते और लंबी सांस लेकर कहते - तब गुरु का सम्मान शिष्य करते थे और सही मायने में विद्या ग्रहण करते थे, उनके अंदर जिज्ञासा थी, गुरुओं के प्रति सम्मान था. आजकल के छात्र अध्यापक को गाली, धौंस , चाकू दिखा परीक्षा में नकल के लिए प्रतिदिन बेइज्जत करते हैं, अब यह कार्य सम्मान का नहीं रहा.
रोज-रोज के धाराप्रवाह भाषण से ऊबकर एक दिन एक छात्र ने कहा - " तब से अब के इस लंबे अंतराल के बीच क्या आप गुरुजनों के अंदर परिवर्तन नहीं आया. तब शिक्षा देना आप अपना आदर्श, कर्तव्य, जीवन का ध्येय समझते थे और अब आपका ध्यान शिक्षा पर कम अपने वेतनमान और ट्यूशन पर अधिक रहता है सर."
अध्यापक महोदय सोच रहे थे कि अवमूल्यन कहां से हुआ है.

आंखें

एक निर्दोष युवक को जब फांसी होने लगी तो जेलर ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी, "तुम्हारी मरने से पूर्व कोई अंतिम इच्छा हो तो बताओ."
"क्या आप पूरी कर सकेंगे?"
"पूरा प्रयास करेंगे."
" तो सुनिए और कान खोलकर सुनिए. मैं अपनी दोनों आंखें इस देश की अंधी न्याय-व्यवस्था को देना चाहता हूं."


उनका दुःख


आज चारों ओर दीपावली का प्रकाश जगमगा रहा था परंतु हमारे घर के ठीक पड़ोस में तिवारी जी के घर में बड़ा सन्नाटा था. मुझे इसका कारण कुछ समझ में न आया.
घर में दीये जलाने के बाद जब पूजा समाप्त हो गयी तो मां ने प्रसाद दिया और कहा, "इसे तिवारी बाबा के यहां दे देना और चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ग्रहण कर लेना."
तिवारी जी के घर पहुंच मैंने पुकारा, "तिवारी बाबा."
"कौन हय, अंदर आय जाव".
मैं अंदर गया तो देखा कि वे एक खटिया पर लेटे हुए थे. मैंने पूछा, "बाबा, आपके तीन लड़्के हैं, पर दीपावली पर कोई नहीं आया?"
"अरे बेटवा पहिलका लड़का अमेरिका में बस गवा, दुसरका दिल्ली मा इंजीनियर है, तीसरका बैंक अफसर ---."
"बाबा मगर आपके लड़कन का आप कय खबर तो लेय का चाही."
"बेटवा ऎसन है कि उन्हें पढ़ावा-लिखावा जौन हमार फर्ज रहा. अब वय सब बड़मनई बन गए और हम ठहरेन गांव का आदमी, उनके साथ एडजस्टमेंट कैसे करित?" कहते हुए उन्होंने दीर्घ निश्वास लिया और फिर बोले, "इससे ज्यादा नीक होत कि हम उनका गंवार राखित तब वै खेती करत और साथय-साथ हमार सेवा टहल करत, यहि बात कय हमय बहुत दुःख है."
इअतने में बाहर किसी बम का धमाका हुआ और धमाके से, हम दोनों काम्पकर रह गए.


मैं तो छोटा बच्चा हूं

रमेश की चार वर्षीय बेटी ईशा जब नर्सरी स्कूल में प्रवेश कराने लायक हो गयी तो वह उसे पर्याप्त रूप से तैयारी करा ए, बी, सी, दी, वन, टू, थ्री----- व ए फार एपल, बी फार बर्ड और काफी कुछा रटाकर ले गया.
बाल भारती स्कूल की प्रधानाचार्य ने ईशा से पूछा, "बेबी व्हाट इज योर नेम?"
उसने जवाब दिया, "माई नेम इज ईशा मिश्रा."
प्रधानाचार्य ने फिर पूछा, "बेटे आपके पापा क्या करते है?"
बेटी ईशा ने उत्तर दिया, "पापा पत्रकार हैं."
प्रधानाचार्य ने फिर गिनती और कई शब्दों के अर्थ पूछे . बेटी ने सारे प्रश्नों के उत्तर दिए.
प्रधानाचार्य ने फिर पूछा, "बेटे आपका धर्म कौन-सा है?"
ईशा ने उत्तर दिया, "हमारा कोई धर्म थोड़े है. मैं तो छोटा बच्चा हूं."
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