लघुकथाएं


धारणा

मैं इस शहर में बिल्कुल अनजान था । काफी भाग–दौड़ करके किसी तरह पासी मुहल्ले में एक मकान खोज सका था । परसों ही परिवार शिफ्ट किया था ।
बातों ही बातो में ऑफिस में पता चल गया कि मैं अपना परिवार पासी मुहल्ले में शिफ्ट कर चुका हूँ। बड़े साहब चौंके–’’ आप सपरिवार इस मुहल्ले में रह पाएँगे ?’’
‘‘क्या कुछ गड़बड़ हो गई सर ?’’ मैने हैरान होकर पूछा ।
‘‘बहुत गन्दा मुहल्ला है । यहॉं आए दिन कुछ न कुछ होता रहता है । सॅंभलकर रहना होगा ।’’ साहब के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभरी–‘‘यह मुहल्ला गंदे मुहल्ले के नाम से बदनाम है । गुडागर्दी कुछ ज्यादा ही है ।’’
मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि बड़े बाबू आ पहुचे–‘‘सर आपने मकान गंदे मुहल्ले में लिया है ?’’
‘‘लगता है मैने ठीक नही किया है ’’–मैं पछतावे के स्वर में बोला ।
‘‘हाँ सर,ठीक नहीं किया । यह मुहल्ला रहने लायक नहीं है । जितनी जल्दी हो सके, मकान बदल लीजिए उन्होंने अपनी अनुभवी आँखें मुझ पर टिका दीं ।
इस मुहल्ले में आने के कारण मैं चिन्तित हो उठा । घर के सामने पान–टॉफी बेचने वाले खोखे पर नजर गई । खोखे वाला काला–कलूटा मुछन्दर एक दम छॅंटा हुआ गुण्डा नजर आया । कचर–कचर पान चबाते हुए वह और भी वीभत्स लग रहा था ।
सचमुच मैं गलत जगह पर आ गया हूँ । मुझे रात भर ठीक से नींद नही आई । छत पर किसी के कूदने की आवाज आई। मेरे प्राण नखों में समा गए । मैं डरते–डरते उठा । दबे पॉंव बाहर आया । दिल जोरों से धड़क रहा था । मुँडेर पर नजर गई । वहॉं एक बिल्ली बैठी थी। आज दोपहर में बाजार से आकर लेटा ही था कि आँंख लग गई । कुछ ही देर बाद दरवाजे पर थपथपाहट हुई । दरवाजा खुला हुआ था। मैं हड़बड़ाकर उठा । सामने वही पान वाला मुछन्दर खड़ा मुस्करा रहा था । दोपहर का सन्नाटा । मुझे काटो तो खून नहीं ।
‘‘क्या–क्या बात है ?’’ मैंने पूछा ।
‘‘शायद आपका ही बच्चा होगा । टॉफी लेने के लिए आया था मेरे पास । उसने यह नोट मुझको दिया था’’–कहते हुए पान वाले ने सौ का नोट मेरी ओर बढ़ा दिया । मैं चौंका । वह सौ का नोट मेरी कमीज की जेब में था । देखा–जेब खाली थी लगता है सोनू ने मेरी जेब से चुपचाप यह नोट निकाल लिया था ।
‘‘टॉफी के कितने पैसे हुए ?’’
‘‘सिर्फ़ पचास पैसे । फिर कभी ले लेंगे’’– वह कचर–कचर पान चबाते हुए मुस्कराया । दूधिया मुस्कान से उसका चेहरा नहा उठा–‘‘अच्छा, बाबू साहब , प्रणाम ! कहकर वह लौट पड़ा ।
मैं स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रहा था ।

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(२) जुलूस


नेताजी का विजय–जुलूस निकल रहा था। ‘जिन्दाबाद’ और ‘जय हो, जय हो’ के नारे लगाती हुई भीड़ आगे बढ़ी। जुलूस के आगे–आगे चलने वाला युवक सड़क के बीचोंबीच पड़ी लाश को देखकर झपटा। उसने टाँग पकड़कर लाश को घसीटा और एक किनारे कर दिया।
‘‘इसे भी आज ही मरना था।’’
‘‘जीकर क्या करता?’’
‘‘अपने देश में भिखारियों की संख्या बढ़ती जा रही है।’’
पास से गुज़रता एक भिखारी ठिठक गया–‘‘अरे! ये तो जोद्धा है।’’
‘‘जोद्धा! किस लड़ाई का जोद्धा?’’ किसी ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा।
‘‘आज़ादी की लड़ाई में गोलियाँ खाई थीं इसने साहब। हाथ–पैर छलनी हो गए थे। न किसी ने रोटी दी न काम दिया। भीख माँगकर पेट भरता था.....’’ भिखारी बोला।
उसने पास में मैली–कुचैली झोली उलट दी। कई बदरंग चिट्ठियाँ इधर–उधर बिखर गईं–जोद्धा को बड़े–बड़े नेताओं के हाथ की लिखी चिट्ठियाँ।
विजय–जुलूस आगे निकल चुका था।
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(3)संस्कार


साहब के बेटे और कुत्ते में विवाद हो गया। साहब का बेटा कहे जा रहा था–‘‘यहाँ बंगले में रहकर तुझे चोंचले सूझते हैं। और कहीं होते तो एक–एक टुकड़ा पाने के लिए घर–घर झाँकना पड़ता। यहाँ बैठे–बिठाए बढ़िया माल खा रहे हो। ज्यादा ही हुआ तो दिन में एकाध बार आने–जाने वालों पर गुर्रा लेते हो।’’
कुत्ता हँसा–‘‘तुम बेकार में क्रोध करते हो। अगर तुम भिखारी के घर पैदा हुए होते तो मुझसे और भी ईर्ष्या करते। जूठे पत्तल चाटने का मौका तक न मिल पाता। तुम यहीं रहो, खुश रहो, यही मेरी इच्छा है।’’
‘‘मैं तुम्हारी इच्छा से यहाँ रह रहा हूँ? हरामी कहीं के।’’ साहब का बेटा भभक उठा।
कुत्ता फिर हँसा–‘‘अपने–अपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। मुझे कार में घुमाने ले जाते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकर–चाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते–बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर ज़रूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।’’
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।
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