नजरिया


सीट दो की है तो क्या हुआ, थोड़ा सा खिसक कर किसी को बेठा लेंगे तो क्या चला जाएगा ? इंसानियत भी कोई चीज होती है , बस मैं मेरी बगल मैं खड़े सज्जन सीटों पैर बेठे लोगों को कोसते हुए बडबडा रहे थे, अगले स्टोपेज पर एक सवारी उतारी तो उन महाशय को भी सीट मिल गयी, वह भी मेरी तरह ही दुबले पतले से थे, सीट मैं थोडी जगह दिखाई दे रही थी, इससे मुझे भी थोडी उम्मीद जगी, मैंने उनसे कहा भाईसाहब, थोड़ा खिसक जाओ तो मैं भी अटक जाऊं,इतना सुनते ही वे भड़क गए,बोले, सेट दो की है और हम दो ही बैठे हैं, कहाँ जगह दिख रही है तुम्हें ? अपनी सहूलियत देखते हैं सब, दूसरे की परेशानी नही समझाते, अब मुझे समझ मैं आ गया था कि दो की सीट पर दो ही क्यों बेठे हैं,

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